भोपाल की सड़कों पर 92 के दंगों में रातभर पहरा देते थे अब्दुल जब्बार

 अब्दुल जब्बार के जाने से हजारों गैस पीड़ित एक बार फिर अनाथ हो गए हैं। सन 1984 की विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के दूसरे दिन से जो संघर्ष जब्बार ने प्रारंभ किया था, वह अबाध रूप से उनकी अंतिम सांस तक जारी रहा। जब्बार ने गैस पीड़ितों की हर संभव मदद करने के साथ-साथ उनके लिए एक बड़ी कानूनी लड़ाई भी लड़ी।



यह जब्बार के प्रयासों के कारण ही था कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपना वह निर्णय बदला, जिसमें यूनियन कार्बाइड के संचालकों को आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया गया था। जब्बार के प्रयासों और तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साहस से कार्बाइड के संचालकों की आपराधिक जिम्मेदारी फिर से निर्धारित की गई। जब्बार के प्रयासों से ही देश के शीर्ष वकीलों ने गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ी। कानूनी के अलावा जब्बार ने मैदानी लड़ाइयां भी लड़ीं। जिस बड़े पैमाने पर जब्बार ने गैस पीड़ितों के संघर्ष में महिलाओं को शामिल किया। वह अपने आप में एक उपलब्धि थी। शायद ही किसी जनसंघर्ष में इतने बड़े पैमाने पर महिलाओं ने भागीदारी की हो

पिछले कई वर्षों से लगातार, हर शनिवार जब्बार की फौज यादगार ए शाहजानी पार्क में इकट्ठा होकर एक-दूसरे के दुख बांटती थी। जब्बार और उनके संगठन के सदस्यों की चेतना सिर्फ गैस पीड़ितों तक सीमित नहीं थी। सन 1992 में भोपाल ने पहली बार सांप्रदायिक हिंसा का सामना किया था। उस दौरान, दंगाइयों के खूनी पंजों से निर्दोष लोगों को बचाने का जो अभियान 24 घंटे चलता था, जब्बार की उसमें निर्णायक भूमिका थी। दिग्विजय सिंह सहित हम लोग कर्फ्यूग्रस्त भोपाल शहर के अंधेरे रास्तों पर रातभर पहरा देते थे। जब्बार और उनका संगठन सांप्रदायिक सौहार्द का भी अप्रितम उदाहरण था।


जब्बार के इस योगदान को सारे देश के साथ विश्व ने भी मान्यता प्रदान की थी। वे कई बरसों से मधुमेह से पीड़ित थे, इसके बाद भी गैस पीड़ितों के लिए उनके संघर्ष में कमी नहीं आई। मामला फिलिस्तीन का हो या अफगानिस्तान का जब्बार की टीम हम लोगों के साथ हमेशा सड़क पर उतरने को तैयार रहती थी। सच पूछा जाए तो जब्बार का जाना एक आंदाेलन का अंतिम पृष्ठ है। देश की संघर्षशील जनता उन्हें हमेशा याद रखेगी।